क्या दिन भी थे वो बचपन के, जो बंदिश में भी अच्छे थे,
हर एक डगर सुहाना था, न मंज़िल पाने की जल्दी थी.
वो झूठा स्वांग रचना था, फिर छुपके किसी को डराना था,
खेल खेल में मस्ती थी, फिर अगले पल ही लड़ना था.
खेल खेल में मस्ती थी, फिर अगले पल ही लड़ना था.
स्कूल ना जाने की जिद थी, पर डब्बे का स्वाद भी प्यारा था.
बस्ते का बोझ तो ज्यादा था, फिर भी वो बस्ता प्यारा था,
बस्ते का बोझ तो ज्यादा था, फिर भी वो बस्ता प्यारा था,
कक्षा में डर के पढ़ना था, फिर मध्यावकाश हमारा था.
मस्ती तो सबको प्यारी थी, पर सबसे प्यारी यारी थी.
मस्ती तो सबको प्यारी थी, पर सबसे प्यारी यारी थी.
मेले के दिन क्या कहने थे, जब दिल खोल के घुमा करते थे,
वो गरम समोसे और जलेबियाँ, जी भर के खाया करते थे.
वो गरम समोसे और जलेबियाँ, जी भर के खाया करते थे.
खूब पटाखें जलते थे, जब खुशियों की दीवाली आती थी,
मस्ती थी होली के रंगो मे, एक दूजे के घर जाते थे.
मस्ती थी होली के रंगो मे, एक दूजे के घर जाते थे.
करते शैतानी ज्यादा थे, पर हम बच्चे मन के सच्चे थे,
क्या दिन भी थे वो बचपन के, जो बंदिश में भी अच्छे थे.
क्या दिन भी थे वो बचपन के, जो बंदिश में भी अच्छे थे.